पटना. देश में जब भी लोक सभा चुनाव होते हैं. बिहार हमेशा सुर्खियों में रहता है. 2024 का चुनाव भी कई मायनों में बीजेपी समेत एनडीए के लिए काफी चुनौती पूर्ण रहा. 2019 में एनडीए ने 40 में से 39 सीटों पर विजय हासिल की थी लेकिन इस बार की लड़ाई कुछ ज़्यादा ही सघन रही. अभी तक चुनाव परिणाम के अनुसार बिहार में एनडीए को जहां 32-34 सीटें मिलती दिखाई दे रही है, वहीं इंडी गठबंधन ने भी जमीनी स्तर पर अच्छा फाइटबैक दिया है. हालांकि इंडिया गठबंधन को 10 से कम सीटें मिलती दिखाई दे रही है.
आखिर एनडीए के पक्ष में क्या रहा?
चुनाव से पहले बीजेपी और जदयू का साथ आना सबसे महत्वपूर्ण घटना विकास था. बिहार के सामाजिक समीकरणों साधने के लिए भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने यह फैसला काफी सोच-समझ कर लिया.
दोनों ही दलों ने संख्यात्मक रूप से समाज के उन वर्गों को छुआ जो अभी तक काफी बिखरे हुए थे.
बात चाहे हम अति पिछड़े वर्ग की करें, पिछड़े वर्ग की करें ओबीसी की करें, या सामान्य वर्ग की करें, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सीएम नीतीश कुमार की सामूहिक पहुंच काफी ज़्यादा विस्तृत और कहीं ज़्यादा प्रभावशाली रही.
चिराग पासवान अकेले बहुत कुछ नहीं कर सकते लेकिन जब बीजेपी और जदयू के साथ इनका जुड़ाव होता है, एनडीए की ताकत में और निश्चिततया बढ़ जाती है. बिहार में पासवान समाज को एक एकजुट करने में चिराग काफी हद तक सफल रहे. कोई भी विश्लेषक उस 50 प्रतिशत आबादी को नज़रअंदाज़ कर सकता है, जो निर्णायक वोटिंग पैटर्न बनाता है. इसके पीछे बहुत हद तक मोदी का करिश्मा और केंद्र की नीतियाँ भी रहीं, जिसने एक बड़े वर्ग को बांधे रखा और साधे भी रखा.
इंडिया गठबंधन के उत्साह का क्या है कारण?
अगर आपने बिहार में राजनीतिक यात्राएं की होंगी या बिहार के लोगों से संवाद किया होगा तो आप एक बात नोट करेंगे कि राजद का वोट बैंक ज़्यादा मुखर और आक्रामक है. चुनावी रैली या पोलिंग बूथ पर यादव समाज के लोग उत्साह के साथ मौजूद रहे, यही बात मुस्लिम समाज के लोगों के लिए भी कही जा सकती है. लेकिन ईमानदार के साथ देखें तो ये संख्या कुल मिलकर 30 प्रतिशत को पार नहीं करती है. ये आक्रामकता भ्रम भी पैदा कर सकती है या झूठा आत्म विश्वास भी पैदा कर सकती है.
सामाजिक आधार बढ़े तक इंडिया गठबंधन की बात बने
जब भी राजद के समर्थक आक्रामक होकर निकलते हैं तो उससे समाज का बड़ा वर्ग (जो कम मुखर है) अपने वोट को लेकर सतर्क और संकल्पित होता है. इस बार भी ऐसा कई क्षेत्रों में देखने को मिला. खासकर अगड़े समाज में इसकी प्रतिक्रिया ज़्यादा देखने को मिलती है. समाज के पिछड़े वर्गों में भी इसकी प्रतिकृया देखने को मिलती है. राजद का ए टू ज़ेड या “बाप” (BAAP-बहुजन, अगड़ा, आधी आबादी और पिछड़ा) समीकरण यहां ज़्यादा कारगर होता हुआ नज़र नहीं आया. सुनने में ये शब्द अनोखे लगते हैं लेकिन धरातल पर विभिन्न वर्गों में सामंजस्य होता हुआ नज़र नहीं आया.
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राजद की तरफ से अपना सामाजिक आधार बढ़ाने की लगातार कोशिश जारी है. इस बार राजद नें आधे दर्जन कुशवाहा उम्मीदवारों को टिकट देकर एनडीए की रणनीति को छिन्न-भिन्न करने की कोशिश की. ये प्रयोग तो शुरुआती स्तर पर एनडीए कंप में सेंधमारी की तरह लगती है. लेकिन, इसका असर 2025 के चुनाव में न हो, ऐसा अभी कहा नहीं जा सकता है. पूरे नतीजे आने के बाद इस प्रयोग का भी विश्लेषण किया जाना ज़रूरी होगा.