उन्होंने कहा, “उकसावे के लिए और क्या चाहिए था… बीते सौ साल में से 70 सालों में इसराइल फ़लस्तीनी लोगों के साथ जो कुछ कर चुका है क्या वो काफी नहीं था?”
प्रिंस तुर्की ने पश्चिमी मुल्कों के राजनेताओं की भी आलोचना की और कहा, “फ़लस्तीनियों के हाथों इसराइलियों के मारे जाने पर वो आंसू बहा रहे हैं, लेकिन जब इसराइली लोग फ़लस्तीनियों को मार रहे हैं तो वो दुख तक नहीं जता रहे.”
इसी सप्ताह अपने इसराइल दौरे के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने हिंसा में मारे गए सभी मासूम लोगों के लिए दुख जताया था.
पश्चिमी मुल्कों की सोच समझते हैं प्रिंस तुर्की
प्रिंस तुर्की को इस बात का पूरा अंदाज़ा होगा कि उनकी स्पीच के बारे में मीडिया में ज़रूर रिपोर्ट किया जाएगा. ऐसे में उन्होंने किस वजह से ये स्पीच दी?
इस बात की संभावना कम ही है कि उन्होंने राजसभा की इजाज़त लिए बग़ैर देश के बाहर इस तरह की स्पीच दी होगी. सऊदी राजसभा पर देश में सबसे ताक़तवर सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान का नियंत्रण है जिन्होंने गुरुवार को ही मध्य पूर्व के मसले पर ब्रितानी प्रधानमंत्री ऋषि सुनक से बात की है.
प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल के परिवार की बात करें तो वो बेहद प्रगतिशील पृष्ठभूमि से आते हैं. उनके पिता किंग फ़ैसल का देश में काफी नाम था, उन्होंने देश को आधुनिक बनाने के लिए काम किया था. 1975 में उनकी हत्या कर दी गई.
प्रिंस तुर्की के भाई सबसे लंबे वक्त तक विदेश मंत्री रहे थे. साल 2015 में उनकी मौत तक वो इस पद पर बने रहे थे.
प्रिंस तुर्की की पढ़ाई अमेरिका और ब्रिटेन में प्रिंसटन, कैम्ब्रिज और जॉर्जटाउन में हुई है, जिस कारण पश्चिमी मुल्कों की संस्कृति और सोच को वो काफी बेहतर तरीके से समझते हैं. इसी कारण अमेरिका और ब्रिटेन के राजनीतिक गलियारों में भी बहुतों के साथ उनके काफी अच्छे संबंध हैं.
पढ़ाई पूरी करने के बाद वो सऊदी अरब के ख़ुफ़िया विभाग के प्रमुख बने और 24 साल तक उन्होंने विदेशी ख़ुफ़िया का काम संभाला. अफ़ग़ानिस्तान की स्पेशल ज़िम्मेदारी भी उन्हें दी गई थी.
2001 में 9/11 हमलों के बाद उन्होंने अमेरिका और ब्रिटेन के लिए सऊदी अरब के राजदूत के तौर पर भी काम किया था.
लंदन में जब वो बतौर राजदूत काम कर रहे थे. उस वक्त जाने-माने पत्रकार जमाल ख़ाशोज्जी उनके मीडिया प्रवक्ता हुआ करते थे.
2018 में तुर्की के इस्तांबुल के सऊदी वाणिज्य दूतावास में जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या कर दी गई. इस बारे में बाद में सऊदी अरब ने कहा कि सऊदी एजेंट की एक टीम उन्हें देश वापस लेने के लिए गई थी और इसी दौरान ‘अभियान’ में वो मारे गए थे.
हमास पर अरब मुल्कों की राय
प्रिंस तुर्की की उम्र अब 78 साल हो चुकी है, सऊदी सरकार में अब वो औपचारिक तौर पर किसी पद पर नहीं है. हालांकि अभी भी अंतरराष्ट्रीय फोरम में उनकी स्पीच से सऊदी परिवार की सोच के बारे में काफी कुछ पता है.
सऊदी शासक हमास के समर्थक हैं. सच ये भी है कि इस इलाक़े के कई मुल्कों की सरकारें भी हमास का समर्थन नहीं करतीं.
मिस्र, जॉर्डन, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन भी हमास, उसके क्रातिकारी विचारों और उसके तथाकथित “राजनीतिक इस्लाम” की विचारधारा को सिकुलर शासन के विरोध में मानते हैं.
हमास ने साल 2007 में फतेह पार्टी को एक तरह से ग़ज़ा से बाहर कर दिया. फ़लस्तीन के जाने-माने नेता यासिर अराफ़ात की बनाई फतेह पार्टी अभी भी वेस्ट बैंक के उन हिस्सों पर शासन करती है जिन पर इसराइल ने अब तक कब्ज़ा नहीं किया है.
दोनों पक्षों के बीच कम वक्त तक चले इस संघर्ष में फतेह पार्टी के कुछ सदस्यों को ऊंची इमारतों की छतों से नीचे फेंक दिया गया था.
हालांकि, हमास की राजनीतिक शाखा का एक दफ्तर क़तर में मौजूद है लेकिन उसका मुख्य समर्थक ईरान है. ईरान और सऊदी अरब लंबे वक्त से एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी रहे हैं.
इसी साल मार्च में ईरान और सऊदी अरब में औपचारिक तौर पर ये सहमति बनी कि दोनों आपसी मतभेद भुलाकर हाथ मिलाएंगे. हालांकि दोनों के बीच लंबे वक्त से जारी अविश्वास पूरी तरह ख़त्म हो गया है, ऐसा नहीं है.
हालांकि, ग़ज़ा में इसराइल की बमबारी की दोनों ने ही कड़ी आलोचना की है और दोनों ने फ़लस्तीनी राष्ट्र के लिए अपना समर्थन जताया है.
सामान्य होंगे सऊदी-ईरान रिश्ते?
इस पर यकीन करना अब मुश्किल है लेकिन दो सप्ताह पहले हमास के इसराइल पर हमले से पहले तक सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन और मोरक्को की तरह ही इसराइल के साथ अपने रिश्ते सामान करने की दिशा में बढ़ रहा था. लेकिन ये कोशिश अब ठंडे बस्ते में चली गई है.
कई विश्लेषक मानते हैं कि इसराइल के साथ मध्य पूर्व के दूसरे मुल्कों के सामान्य होते रिश्तों को पटरी से उतारने के उद्देश्य से हमास ने इसराइल पर हमला किया था. क्योंकि अगर इसराइल और मध्य पूर्व के दूसरे मुल्कों के रिश्ते सुधरते तो इससे ईरान और हमास के दरकिनार होने का ख़तरा था.
लेकिन क्या अब फिर कभी मध्य पूर्व में यथास्थति वापस लौटेगी?
अभी की बात करें तो इसके कम ही आसार नज़र आते हैं. हमास के हमले से घायल इसराइल किसी तरह का समझौता नहीं करना चाहेगा.
ये जानते हुए कि अरब मुल्कों की सड़कों पर इसराइल विरोधी प्रदर्शन हो रहे हैं, उन मुल्कों की सरकारों के साथ हाथ मिलाने में उसे थोड़ी हिचक महसूस होगी.
लेकिन जब ग़ज़ा का संघर्ष ख़त्म होगा, जैसा कि एक न एक दिन होना तय है, तो हो सकता है कि ग़ज़ा में आम जनजीवन को पटरी पर लाने के लिए सऊदी अरब आगे आए. यहां पुर्नगठन के काम में वो बड़ी आर्थिक मदद कर सकता है.
ऐसे में सऊदी प्रिंस तुर्की के बयानों पर नज़र रखना बेहद अहम होगा, जिससे शायद इसका अंदाज़ा लग सके कि आने वाले वक्त में पूरे मामले पर सऊदी अरब का क्या नज़रिया है.