वो साल 1948 था, जब अरब-इसराइल युद्ध शुरू हुआ था.
तब से लेकर आज तक फ़लस्तीन में जंग का सिलसिला थमा नहीं.
50 साल पहले 1973 में जो तीसरा अरब-इसराइल युद्ध हुआ, उसके बाद अरब देशों के साथ कोई सीधी जंग नहीं हुई. लेकिन फ़लस्तीन और इसराइल का संघर्ष अब तक जारी है.
हालांकि इस संघर्ष को समाप्त कर शांति स्थापित करने के लिए ‘दो राष्ट्र का फॉर्मूला’ कई बार सुझाया गया. लेकिन ये कभी अमल में नहीं आया.
फ़लस्तीन औऱ इसराइल इन दो अलग-अलग देशों के रूप में पहला फॉर्मूला 1947 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने दिया था. उस समय ये कहा गया था कि इसराइल यहूदियों का देश होगा और फ़लस्तीन अरबों का.
तब यहूदियों के पास कुल ज़मीन का 10 फ़ीसद हिस्सा ही था. लेकिन उस फॉर्मूले के तहत उन्हें कुल ज़मीन का आधा हिस्सा दिया गया. इसे अरब देशों ने कभी स्वीकार नहीं किया.
इस असहमति की वजह से पहला अरब-इसराइल युद्ध और खिंचता गया. हालांकि कुछ बिंदुओं पर इसराइल और फ़लस्तीन दो राष्ट्र के फॉर्मूले पर सहमत थे.
लेकिन ये हुआ कैसे और आगे चलकर वो फॉर्मूला नाकाम कैसे हो गया, ये बड़ा सवाल है.
क्या था ‘दो अलग देशों’ का फॉर्मूला?
1947 में यूएन की तरफ़ से आया ये फॉर्मूला पहली बार वास्तविकता की ओर तब बढ़ना शुरू किया जब फ़लस्तीन और इसराइल 1993 में शांति समझौते के लिए पहली बार बैठे. जगह थी नॉर्वे की राजधानी ओस्लो.
उस समझौते को ओस्लो समझौते के नाम से जाना जाता है.
शांति समझौते के तहत वेस्ट बैंक और ग़ज़ा पट्टी पर शासन के लिए फ़लस्तीनी प्राधिकरण के निर्माण की घोषणा की गई. इसे पाँच साल के भीतर बनाने की बात थी.
दूसरी तरफ फ़लस्तीन ने भी अलग इसराइल को मान्यता दी.
समझौते में वेस्ट बैंक और ग़ज़ा पट्टी पर शासन के लिए जल्दी ही फ़लस्तीनी राष्ट्र प्राधिकरण के निर्माण की भी बात थी.
लेकिन इसके बावजूद शांति प्रक्रिया धीमी होती गई. इसमें तमाम तरह की बाधाएं आने लगीं.
आख़िर शांति प्रक्रिया क्यों रुकी?
हालांकि ओस्लो समझौते में दो अलग देशों के समाधान को स्वीकार कर लिया गया था. लेकिन इनका गठन कब होगा इसके लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई थी.
यहाँ तक कि इसराइल से अलग देश के रूप में फ़लस्तीन के गठन के लिए जो चार ज़रूरी मुद्दे थे, इसका भी कोई हल नहीं निकाला गया.
उन चार मुद्दों में पहला था दोनों देशों की सीमा कहां और कैसे निर्धारित होगी?
दूसरा मसला था- यरूशलम किसके अधीन होगा? तीसरा पेच था फ़लस्तीनी क्षेत्रों में बसे इसराइली नागरिकों को कैसे हटाया जाएगा? और चौथा मसला था इसराइल के अंदर विस्थापित फ़लस्तीनी लोगों का, आख़िर वो कैसे लौटेंगे?
इन सवालों के संदर्भ में समझौते में ये कहा गया कि पांच साल के भीतर फ़लस्तीनी प्राधिकरण के गठन के बाद इन सभी मसलों पर बातचीत की जाएगी. लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं.
इसराइल की तेल अवीव यूनिवर्सिटी में मिडिल ईस्ट स्टडीज़ के प्रोफेसर मीर लिटवाक कहते हैं, समझौते के पूरी तरह नहीं लागू होने के लिए दोनों ही पक्ष ज़िम्मेदार हैं.
बीबीसी से बातचीत में प्रोफ़ेसर लिटवाक ने बताया, ’’इसराइल और फ़लस्तीन, दोनों ही पक्षों में शांति समझौते के दो-दो विरोधी समूह थे. इन्होंने आम सहमति को अस्वीकार किया. इन दोनों समूहों का कहना था कि पूरा इलाक़ा उनका है और ये सिर्फ़ उनके देश का है.’’
फ़लस्तीन की तरफ़ से ये विरोधी समूह हमास और इस्लामिक जिहादियों का था. वहीं इसराइल में ये विरोध कट्टर यहूदी धार्मिक और राष्ट्रवादी समूहों की तरफ़ से था.
इसका नतीजा ये हुआ कि ओस्लो समझौता कभी आगे नहीं बढ़ पाया.
’’इसराइल और फ़लस्तीन, दोनों ही पक्षों में शांति समझौते के दो विरोधी समूह थे. इन्होंने आम सहमति को अस्वीकार किया. इन दोनों समूहों का कहना था पूरा इलाक़ा उनका है और ये सिर्फ़ उनके दे
1993 के इस समझौते के विरोध में हमास और इस्लामिक जिहादी समूहों ने यहूदियों पर हमले शुरू कर दिए. दूसरी तरफ़ एक यहूदी कट्टरपंथी ने शांति समझौते की वकालत करने वाले इसराइली प्रधानमंत्री इस्साक रॉबिन की हत्या कर दी.
इसके बाद 1996 में कट्टर राष्ट्रवादी विचारधारा में यक़ीन रखने वाले दक्षिणपंथी दल इसराइल की सत्ता में आया. ये सरकार शांति प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाना चाहती थी.
हालांकि बाद के बरसों में दोनों पक्ष कई बार मिले. लेकिन कोई समाधान नहीं नहीं निकला. इस दौर में इसराइल का पूरा ध्यान फ़लस्तीनी क्षेत्रों में यहूदी बस्तियों के विस्तार पर था. दक्षिणपंथी सरकार ने यरूशलम को इसराइल की राजधानी भी घोषित कर दी.
ऐसे हालात के मद्देनज़र तमाम लोगों के मन मे ये संदेह पनपता है कि एक अलग फ़लस्तीन देश का सपना कभी भौगोलिक दृष्टि से साकार हो पाएगा?
कैसे होगा स्वतंत्र फ़लस्तीन का सपना साकार?
किसी भी देश की स्थापना के लिए सबसे पहली ज़रूरत होती है ज़मीन. यही ज़रूरत फ़लस्तीन की भी है. लेकिन वेस्ट बैंक जैसे जो इलाक़े फ़लस्तीन के माने गए थे, वहाँ अब हज़ारों यहूदी बस्तियां बसाई जा चुकी हैं.
इसके अलावा इसराइल ने अरब बहुल यरूशलम को अपनी राजधानी घोषित कर दी है और अमेरिका जैसे कई देशों ने इसे मान्यता दे रखी है.
इसी वजह से कई लोग सोचते हैं कि अलग फ़लस्तीन देश का भौगोलिक रूप से स्थापित होना मुश्किल है.
इन्हीं में से एक हैं अमेरिका में मिडिल ईस्ट के मसलों पर रिसर्च करने वाले शाहीन बेरेनजी. शाहीन को लगता है कि अलग फ़लस्तीन देश की स्थापना बेहद चुनौतीपूर्ण होगी.
बीबीसी से बातचीत में शाहीन ने बताया, ‘’1990 के दशक की तुलना में आज अलग फ़लस्तीन देश का गठन और मुश्किल हो चुका है. वेस्ट बैंक और यरूशलम में यहूदी बस्तियां कई गुना बढ़ चुकी हैं.
1993 के समझौते में इनकी तादाद एक लाख 20 हज़ार थी, जो अब बढ़ कर 7 लाख से ज़्यादा हो गई हैं. आज यहूदी बस्तियां वहाँ भी बसाई गई हैं, जो ख़ुद इसराइल के क़ानूनों के तहत अवैध हैं.’’
शाहीन ये भी कहते हैं, ‘’इसके अलावा बात ये भी है कि दो अलग राज्यों के फॉर्मूले में इसराइल की अब कोई दिलचस्पी नहीं रही. दूसरी तरफ़ फ़लस्तीन है, जो हमास और फ़तह दो गुटों में बँटा हुआ है. इनके पास फ़लस्तीनियों के लिए शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने लायक कोई भरोसेमंद नेता नहीं है.’’
तो क्या अब ‘दो अलग देश का फॉर्मूला’ मुमकिन नहीं?
इस सवाल पर प्रोफ़ेसर मीर लिटवाक जैसे कुछ जानकार हैं, जिन्हें लगता है कि अब भी सुधार की गुंजाइश है. लेकिन सवाल है कि क्या इसराइल ऐसा चाहता है?
इस सवाल पर हालांकि प्रोफ़ेसर लिटवाक को ये भी लगता है कि कि इसराइल ऐसा क़तई नहीं चाहता.
वो कहते हैं, ‘’इस मामले में मैं इसराइली सरकार के रवैये की आलोचना करता हूँ. क्योंकि वो जिस स्थिति को समाधान के रूप में देखते हैं, उसे वैसे ही छोड़ देते हैं. जैसे कि वेस्ट बैंक. वो चाहते हैं कि यहाँ एक फ़लस्तीनी प्राधिकरण भी होगा और वो इसे नियंत्रित भी करेंगे. यानी एक कमज़ोर प्राधिकरण और पूरी तरह उनकी मर्ज़ी पर निर्भर.’’
प्रोफ़ेसर लिटवाक ये भी मानते हैं, कि ऐसा कहना बड़ी ग़लतफ़हमी होगी कि इसराइल हर चीज़ को हमेशा के लिए नियंत्रित करता रहेगा. समाधान तभी निकलेगा जब इसराइल ऐसे बाहर निकलेगा.
प्रोफ़ेसर लिटवाक को लगता है कि अलग फ़लस्तीन के गठन में सबसे बड़ी बाधा हैं यहूदी बस्तियां.
हालांकि वो ये भी कहते हैं कि इसराइल ने ग़ज़ा से अपनी सभी बस्तियां हटा ली है और यहां का नियंत्रण भी पूरी तरह से छोड़ दिया है. ऐसा वेस्ट बैंक में भी किया जा सकता है. भले ही ये थोड़ा मुश्किल हो.
इसी तरह यरूशलम को लेकर भी दोनों पक्ष अपने रुख़ में थोड़ी ढील दें, तो यहां भी आम सहमति बन सकती है.
लेकिन इसराइल और फ़लस्तीन के बीच जो जंग के नए हालात बने हैं, इसमें सदियों पुराने गतिरोध को कौन बदलेगा, ये एक बड़ा सवाल है.
अमेरिकी शोधकर्ता शाहीन बेरेनजी मानते हैं कि ऐसे हालात में अमेरिका को फिर से आगे आना चाहिए. अमेरिका अगर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समर्थन से शांति की पहल करे, तो वो सफल हो सकता है.
बीबीसी से बातचीत में शाहीन ने कहा, ‘’ये ऐतिहासिक तथ्य है कि जब-जब मध्य-पूर्व में अमेरिका ने कुछ करना चाहा, तो उसे लागू किया गया है. जैसे मिस्र-इसराइल शांति समझौता, जॉर्डन के साथ समझौता, यहां तक कि हाल का अब्राहम समझौता. इन सबमें अमेरिका की भूमिका रही है.’’
अब सवाल है कि क्या अमेरिका मध्य-पूर्व में शांति स्थापित करने में दिलचस्पी रखता है?
इस सवाल पर शाहीन कहते हैं, ‘’9/11 हमले के बाद के बरसों में अमेरिका का ध्यान ओस्लो समझौते को लागू करने से हटकर आतंकवाद के ख़िलाफ़ जंग पर केंद्रित होता गया. बाद में वो ईरान, रूस और चीन के साथ उलझा रहा. लेकिन अब अमेरिका को मध्य-पूर्व के मामले में दोबारा सक्रिय होना पड़ेगा. वर्ना इस संघर्ष के नतीजे सबको भुगतने पड़ेेंगे. कुछ समय बाद ये संघर्ष और व्यापक हो जाएगा.’’
इस तरह देखें, तो फ़लस्तीन और इसराइल के बीच शांति की बड़ी उम्मीद अमेरिका है. यदि वो शांति के लिए पहल करता है, तो उम्मीद की किरण नज़र आती है.
लेकिन संकट ये है कि इसराइल पर हमले के बाद जिस तरह फ़लस्तीन और इसराइल के बीच जंग का दायरा व्यापक हो रहा है, शांति की बात करता कोई नहीं दिख रहा है. न अमेरिका और इसराइल और ना ही हमास.